Tuesday 10 April 2012

हर शहर में चंद गली-मोहल्ले रहते हैं

अमिताभ बच्‍चन की ‘डॉन’ में बंबई नगरिया पर एक गाना था, जिसके अंतरे में कुछ इस आशय की पंक्तियां हैं : कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा, चर्च का गेट है चर्च है लापता। सोचता हूं अगर हिंदुस्‍तान के गली-मोहल्‍लों के नामों के बारे में इसी तरह के सवाल पूछे जाएं तो एक अच्छा-खासा ‘मोहल्ला पुराण’ तैयार हो सकता है।


मिसाल के तौर पर उज्‍जैन में एक गली है, जो नमकमंडी कहलाती है। इससे आगे का चौक खाराकुआं है। लेकिन इन दोनों का नमक से कोई ताल्‍लुक नहीं, यहां तो व्‍यापारियों की बसाहटें हैं। इसी तरह तोपखाने में कहीं कोई तोप नहीं, लोहे का पुल में अब लोहे का कोई पुल नहीं है और फ्रीगंज बस नाम का ही ‘फ्री’गंज है। वास्‍तव में शहर का सबसे महंगा इलाका फ्रीगंज ही है। ढाबारोड पर रोटी-खुराक नहीं मिलती, मिठाइयां मिलती हैं। दानीगेट नाम है, लेकिन दाता से ज्यादा यहां सवाली हैं। पानदरीबे में रबड़ी की दुकान मशहूर है, पान खाना हो तो दौलतगंज जाइए। अलबत्ता मगरमुंहा के नामकरण के पीछे जरूर एक दिलचस्प वाकिया है। सन तिहत्तर की पूर में यहां एक मगरमच्छ आकर फंस गया था, बस तभी से यह मोहल्ला हो गया मगरमुंहा।

 मोहल्‍लों के नामकरण की महिमा अपरंपार है। आमतौर पर मोहल्‍ले के नामों में पुरा, बाखल, दरीबा, चौक, गंज, कलां वगैरह जुड़ा होता है। कलां का इस्‍तेमाल बड़े गांव के लिए भी होता है। खुर्द इससे छोटा होता है। जैसे बड़ी खरसोद अगर खरसोद कलां है तो छोटी खरसोद कहलाएगी खरसोद खुर्द। बल्‍लीमारां से गालिब याद आते हैं। चूड़ीवालान-झंडेवालान शाने-दिल्‍ली हैं। लेकिन ये बल्ली, चूड़ी और झंडे के पीछे क्या कहानी है, कौन जानता है।


मैं आज भी पिपलानी को भूल से पलासिया बोल जाता हूं। पिपलानी भोपाल में है, पलासिया इंदौर में। इंदौर की छप्‍पन दुकानें बड़ी मशहूर हैं। बीसियों साल हो गए, शहर फैलकर तूम्‍बा हो गया, लेकिन छप्‍पन दुकानें ‘अब तक छप्‍पन’ ही हैं। इंदौर में ही एक अन्‍य इलाका है : जूना रिसाला। रिसाला पत्रिकाओं-जर्नल्‍स वगैरह को कहते हैं। जूने का मतलब है पुराना। अब भला जूने रिसाले का किसी मोहल्‍ले के नाम से क्‍या सरोकार? हां, रिसाले का एक मतलब फौज-लश्कर से जरूर जुड़ा होता है। इससे तरतीब मिलाकर देखें तो पाएंगे कि इंदौर में एक ‘छावनी’ भी है। राजबाड़े के पास एक बड़ा लोकप्रिय बाजार है, जो कहलाता है : आड़ा बाजार। भई वाह, बहुत खूब।

कलकत्ते में पाड़े बहुत मिलेंगे : दर्जीपाड़ा, धोबीपाड़ा वगैरह। मुंबई में बांद्रा के साथ ही बोरीबंदर भी है। शैलेष मटियानी के एक उपन्यास का शीर्षक याद आता है : ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’। बोरीबंदर को ही पहले वीटी कहते थे, अब यह सीएसटी कहलाता है। थोड़ा-बहुत कबाड़ा अंग्रेजी उच्‍चारणों ने भी किया है। जैसे मुंबई का शीव अब सायन हो गया और भायखला बायकुला हो गया। अलबत्ता चिंचपोकली अब भी चिंचपोकली ही है और माशाअल्ला आने वाली कई मुद्दतों तक रहेगा।

और सबसे आखिर में अमां खां भोपाल। इधर कई गलियों-गेटों के नाम दिनों के नाम पर हैं, जैसे पीरगेट, जुमेराती गेट, इतवारा, बुधवारा, मंगलवारा वगैरह। एक पुल पातरा है, एक पुल पुख्ता, तो एक पुल बोगदा। एक सड़क घोड़ा नक्‍कास रोड कहलाती है।

लेकिन सबसे जबर्दस्त हैं भोपाल की गलियों के नाम। जरा गौर फरमाइए : शेखबत्ती की गली, गुलियादाई की गली, काली धोबन की गली, बाजे वालों की गली, टेढ़ा अतूत गली, बीसाहजारी गली। और हर गली के नाम से जुड़ा है कोई किस्सा। भोपाल के कवि राजेश जोशी ने अपनी किताब ‘किस्सा कोताह’ में भोपाल के गली-मोहल्लों से जुड़े दिलचस्प किस्सों का बखान बड़ी तबीयत से किया है।

हर शहर कई गलियों से बनता है, हर गली कई किस्‍सों से। वास्तव में कोई शहर अपनी अंगुलियों के पोरों पर नहीं, हथेली की गुदैली पर बसता है। और वहीं होते हैं मोहल्‍ले-पाड़े, गली-दरीबे, जो हर शहर का नमक होते हैं।

1 comment:

  1. हाँ, सुशोभित ये मोहल्ला पुराण हर शहर का अपना इतिहास है। मैंने धार में फलिया भी देखे हैं मसलन हर्जी फलिया, मेवाती फलिया।

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