Monday 9 April 2012

क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए

(मोती मस्जिद के बाहर किताबों की वो पुरानी दूकान देखते ही अपने ख़ां ये समझ गए थे कि इधर अपने काम का कुछ मिलेगा। ऐसा ही हुआ। भोपाल के जुगराफिये-कल्‍चर-माज़ी का ब्‍योरेवार बयां फ़रमाता एक वाहिद रिसाला अपने हत्‍थे चढ़ गया। ये रिसाला साल 1998 में दिल्‍ली के बाबुल इल्‍म पब्लिकेशन से डॉ रजिया हामिद की सरपरस्‍ती में शाया हुआ था। इसके पन्‍ने उलटते हुए अपनों की नज़र जनाब मुहम्‍मद अहमद सब्‍ज़वारी के एक दिलचस्‍प ब्‍योरे पे पड़ी, जिसमें वो बता रहे थे कि अठारह सौ इक्‍यासी में जब ताज महल तामीर हुआ, तो भोपाल में क्‍या जश्‍न बरपा था। उस तफ़सील का एक मुख्‍़तसर हिस्‍सा यहां अर्ज कर रहा हूं, साथ ही आज के ताज की एक तस्‍वीर। इसे पढ़ें और फिर तस्‍वीर देखें तो शीन काफ़ निज़ाम का वो मिसरा बेसाख्‍़ता याद आता है : 'क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए।')

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"...जब शाहजहां बेगम रईसा हुईं तो वो शौक़त महल में रहती थीं। फिर उन्‍होंने महल्‍ला शाहजहानाबाद आबाद किया। यह एक मंसूबे के तहत तैयार हुआ। उसमें मुख्‍़तलिफ़ महलात मसलन ताज महल, आली मंजिल, बेनज़ीर, गुलशन-आलम, सुर्ख महल, सब्‍ज़ महल वग़ैरा बनवाए। उनके क़ुर्ब जवार में नवाब मंजिल, बारह महमल, अमीरगंज, क़ैसरगंज, मुग़लपुरा, ख्‍़वासपुरा के महल्‍ले तामीर किए। अठारह सौ इक्‍यासी ईस्‍वी में वो ताज महल में मुंतकिल हुईं और ताज की तैयारी का जश्‍न मनाया गया, जिसमें ग़रीबों को खाना खिलाया गया और लोगों को खाने के बाद मरज़ानी, मुक़ेशी हार और सोने-चांदी के वर्कों में लिपटी गिलोरियां तक़सीम की गईं। महल में एक मकान सावन-भादो के नाम से बनाया गया। इसके जश्‍न में ख़ादिमों और ख्‍़वासों को जाफ़रानी जोड़े दिए गए। ख्‍़वास को रंग से भरा हुआ एक चांदी का कटोरा, ख़ासदान और एक-एक पिचकारी दी गई। आला दर्जे के लोगों की पिचकारी सोने की थी। अंदुरून महल में एक मीना बाज़ार और उसके एक हिस्‍से में परी बाज़ार लगाया गया, जहां सिर्फ ख्‍़वातीनों की दुकानें थीं। ताज महल के बराबर पहले सरकारी गंजीख़ाना था। यहां ईदगाह की पहाड़ी के पानी को रोककर तालाब बनाया, जिसको शाहजहानी या शीरीं तालाब के नाम से मोसूम किया गया, मगर बाद में यह मोतिया तालाब के नाम से मशहूर हुआ। ताज के बिल्‍कुल बराबर उन्‍होंने एक अज़ीमोश्‍शान मस्जिद का मंसूबा बनाया। अगर यह उनके मंसूबे के मुताबिक़ तैयार हो जाती तो दुनिया की एक नादिर मस्जिद होती। दिल्‍ली की जामा से भी वाहिद। ये ही ताजुल मसाजिद थी।"

16 comments:

  1. स्वागत ब्लोगरो की दुनिया में जहां ना संपादन है ना काट छांट का डर ..................

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    1. Sushobhit , aapko badhai aur shubhkamnaen. suruchipoorn pathakon ke man ka blog ..

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  2. भोपाल की इतनी दिलचस्प जानकारी के लिए शुक्रियां. तस्वीरें उसे मुकम्मल बनाती है.

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  3. Dear Sushobhit, I am glad to know about your blog. You may have complete freedom to showcase the products of your mind at this platform. Hope you keep cherishing your viewers with images and words!

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  4. प्रिय मित्र, उम्मीद है फिल्म वाली डीवीडी मिल जायेगी. साथ ही, अगर संभव हो तो, रसाले के उन पन्नों की फोटोप्रतियां भी जिनमें भोपाल की कहानी दर्ज है.

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  5. सभी दोस्‍तों का शुक्रिया।

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  6. ओये शाबास. बढि़या. स्‍वागत यहां पर. और यह किताब तो जैकपॉट है.
    है न ?

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  7. स्वागत है.....शब्दों से बरसती तस्वीरों के नजारों की झलक यहां बी मिलेगी।

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. स्वागत है। टेम्पलेट भी तुम्हारे जैसी ही सीधी-सादी है :-) यदि तुम चाहो तो 'इत्यादि' शीर्षक के साथ एक टैगलाइन भी दे सकते हो।
    वो पुस्तक, मेरा मतलब है उस रिसाले की सामग्री और चित्रों के कॉपीराइट को ध्यान में रखते यहाँ जनता के लिए प्रस्तुत कर सकते हो।
    और वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दो तो लोगों को टिप्पणी देने में आसानी होगी।

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