Tuesday 5 June 2012

स्‍वप्‍न और स्‍वप्‍नभंग का सिनेमा


अगर हम आज पीछे मुड़कर भारत देश के तिथिक्रम पर नज़र डालें तो पाएंगे कि 1950 का दशक उसके लिए स्‍वप्‍नों का दशक था। नवनिर्माण का स्‍वप्‍न, पुनर्जीवन का स्‍वप्‍न। ये अलसभोर के सपने थे। कच्‍चे और रूमानी। उदात्‍त आदर्शवाद इन स्‍वप्‍नों की लुकाठी थी, आशा उनका चश्‍मा। सन् सत्‍तावन में साहिर लुधियानवी ने इक़बाल की ही तर्ज पर कहा था : मिलजुल के इस वतन को, ऐसा बनाएंगे हम, हैरत से मुंह तकेगा, सारा जहां हमारा।


लेकिन स्‍वप्‍न कभी तार्किक संगति की सीधी लक़ीर पर नहीं चलते। इसीलिए 1950 का यही दशक सपने देखने के साथ ही स्‍वप्‍नभंग और मोहभंग का भी दशक है। भोर के सपने यूं भी दीर्घजीवी सिद्ध नहीं होते। यथार्थ की तीखी धूप में स्‍वप्निल आदर्श ओस की बूंदों की तरह बिला जाते हैं। सपनों की लुकाठी हाथ से छूट जाती है, उम्‍मीद के चश्‍मों पर भाप की परत जम जाती है। कुछ दिखाई नहीं देता, कोई रास्‍ता नहीं सूझता।

कह सकते हैं कि 1950 के दशक का समस्‍त सार्थक हिंदी सिनेमा एक भारतीय नियति के स्‍वप्‍न और स्‍वप्‍नभंग का प्रतिनिधि सिनेमा है और बिमल रॉय, गुरुदत्‍त और राज कपूर उसके अग्रणी फिल्‍मकार हैं।

लेकिन इन फिल्‍मकारों के रचनाकर्म की स्‍वप्‍न-काया में प्रवेश करने से पहले कुछेक तथ्‍यों पर एक नज़र डाल लेना समीचीन होगा, जो कि फ़ौरी तौर पर परिधि के लक्षण जान पड़ने के बावजूद कुछ बुनियादी संदर्भों को आलोकित कर सकते हैं।

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ऊपर सन् सत्‍तावन का जो उल्‍लेख हुआ है, वह अकारण नहीं है। सन् सत्‍तावन कई मायनों में एक महत्‍वपूर्ण साल था। यही वह साल था, जब 1757 के प्‍लासी युद्ध के दो सौ बरस हुए थे। यही वह साल था, जब 1857 का सैनिक विद्रोह एक सदी पुराना हो गया था। और यही वह साल था, जब आज़ाद हिंदुस्‍तान ने अपनी समप्रभुता का एक दशक पूरा किया था। साथ ही मुल्‍क के बंटवारे के एक दशक पुराने ज़ख्‍़मों के हरा हो जाने का सबब भी यही साल था। सन् सत्‍तावन का साल एक साथ औपनिवेशिक बंधनों के पुष्‍ट होने, विमुक्ति के आलोड़नों के सतह पर उभर आने और एक विभाजित स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने के स्‍मृति-पर्व का साल था। यह अतीतव्‍याकुल होने के साथ ही आने वाले कल की ओर देखने का भी साल था। यह आत्‍ममंथन करने के साथ ही दूरदृष्टिपूर्ण होने का भी साल था।

यह नेहरूवियन आदर्शों के महिमागान के साथ ही उनके अनिवार्य पुनरावलोकन का साल था।
और यही वह साल था, जब हिंदी सिनेमा के रजतपट पर मदर इंडिया, प्‍यासा, नया दौर, दो आंखें बारह हाथ और फिर सुबह होगी जैसी फिल्‍में अवतरित होती हैं। मदर इंडिया एक ग्रामीण स्‍त्री के महान संघर्षों और अदम्‍य जिजीविषा की कहानी है, लेकिन सनद रहे कि इस फिल्‍म की शुरुआत गांव में निर्मित बांध के उद्घाटन के एक दृश्‍य के साथ होती है। बांध के उद्घाटन के लिए गांव के लोग बूढ़ी मदर इंडिया को बुलाकर उसके प्रति अपनी आदरांजलि ज्ञापित करते हैं। भारत-निर्माण के इसी दशक में नेहरू ने बांधों को आधुनिक तीर्थ कहा था और समानता के समाजवादी आदर्शों का बड़ा हल्‍ला था, जिसमें यक़ीनन स्‍त्री का भी अपना एक अधिकार क्षेत्र था। मदर इंडियाका यह शुरुआती दृश्‍य अपने मंतव्‍यों और अपनी राजनीति में पूरी तरह नेहरूवियन है। लेकिन ठीक इसी के सामने इसी साल आई एक अन्‍य फिल्‍म नया दौर को देखें तो पाएंगे कि समाज में विकास के सोपानों पर मुस्‍तैदी से आगे बढ़ने के साथ ही विकास प्रक्रिया में निहित अंतर्विरोध भी उभरने लगे थे। नया दौर राज्‍यतंत्र द्वारा प्रस्‍तावित विकास के मॉडल के समक्ष ग्रामीणों के प्रतिरोध की कहानी है। इन अर्थों में यह फिल्‍म विकास विरोधी द्वैधा के उसी मानस को जाने-अनजाने प्रतिफलित करती है, जो आने वाले सालों में नेहरूवियन विरोधाभासों का अभिन्‍न अंग बनते चले गए थे। भारत के सामने कुछ कठोर विकल्‍प थे और उसे अपने रूमानी आग्रहों की क़ीमत पर उनमें से किसी का चयन करना था।

इन अर्थों में पचास का दशक और ख़ासतौर पर सत्‍तावन का साल स्‍वप्‍नशीलता और स्‍वप्‍नभंग के एक साथ दुष्‍कर निर्वाह का साल था। फिर सुबह होगी में साहिर का गीत है, वो सुबह कभी तो आएगी, लेकिन प्‍यासा में यही साहिर लिखते हैं, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है और जिन्‍हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं?’ जश्‍ने–आज़ादी का हंगामाखेज़ ज़माना धूल के ग़ुबारों में पीछे छूट चुका था, आज़ाद हिंदुस्‍तां के दूध के दांत टूट चुके थे। हम अपना गणतंत्र रच चुके थे और रियासतों का विलय कर एक समप्रभु राष्‍ट्र का गठन कर चुके थे। वायदों की मियाद पूरी हो चुकी थी या पूरी हो रही थी। वह ख़ुद से कुछ तल्‍ख़ सवाल पूछने का दौर था, लेकिन वह अपने स्‍वप्‍नों का मान रखने का भी दौर था।

इस पृष्‍ठभूमि में जब हम हिंदी सिनेमा के दो प्रतिनिधि नायक-निर्देशकों गुरुदत्‍त और राज कपूर के कृतित्‍व में उनके स्‍वप्‍न-रोमान का विश्‍लेषण करते हैं तो हम उनकी विडंबनाओं और विद्रूपों के साथ ही उनकी उमंगों और उम्‍मीदों को भी समझने की दिशा में कुछ क़दम आगे बढ़ा सकते हैं।

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गुरुदत्‍त के स्‍वप्‍न क्‍या थे? राज कपूर के स्‍वप्‍न क्‍या थे? इन दोनों के सिनेमा में स्‍वप्‍न कितना है, यथार्थ कितना? हक़ीक़त कितनी है, फ़साना कितना है? या क्‍या उनके स्‍वप्‍न निजी थे या सार्वभौम? उनके यहां स्‍वप्‍नभंग का दंश वैयक्तिक था या समष्टिगत? उनके सपने उनके लिए ज़ख्‍़म थे या मरहम? मर्ज थे या राहत। और कैसा तौर, कैसा डौल था उन सपनों का?
 
गुरुदत्‍त और राज कपूर दोनों के ही कृतित्‍व के पीछे साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र और ख्‍़वाज़ा अहमद अब्‍बास जैसे प्रगतिशील स्‍वर सक्रिय थे। समाजवादी हलक़ों से आए इन रचनाकारों ने अनायास ही गुरुदत्‍त और राज कपूर के सिनेमा को एक स्‍वप्‍नशीलता का शिल्‍प दिया था, अपने समय का एक आलोचनात्‍मक पाठ तैयार करने का संकल्‍प दिया था, लेकिन इसके बावजूद इन दोनों अभिनेताओं-निर्देशकों के रास्‍ते अलग-अलग थे। गुरुदत्‍त का क्षोभ एक सीमा के बाद आत्‍मद्रोह बन जाता है। यह अकारण नहीं है कि उन्‍होंने आत्‍मघात किया था। वहीं राज कपूर के यहां यह युगबोध की एक विडंबनामूलक अवस्थिति तक ही महदूद रहता है। गुरुदत्‍त के यहां वेदना के घात-प्रतिघात कहीं ज्‍़यादा सघन थे। राज कपूर का भावबोध जहां भारतीय रूपकात्‍मकताओं के अनुरूप था, वहीं गुरुदत्‍त में पश्चिमी दर्शन से प्रेरित अस्तित्‍ववादी आलोड़न लक्ष्‍य किया जा सकता है।

श्री 420 की नायिका का नाम विद्या था और खलनायिका का नाम माया था। राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी का न केवल नाम गंगा था, बल्कि वह गंगा होने के रूपक को दूर तक जीती भी है।सत्‍यम शिवम सुंदरम में सौंदर्य के मानकों की विवेचना है। इस तरह की भारतीय मिथकों से अनुप्राणित रूपकात्‍मकता राज कपूर के सिनेमा की एक विशिष्‍ट पहचान रही है। इसके उलट गुरुदत्‍त के यहां क्षोभ का उत्‍ताप उन्‍हें किन्‍हीं सूक्ष्‍म प्रतीकों और रूपकों में जाने से रोकता है और वे सीधे मंच पर आकर हमसे, और सबसे ज्‍़यादा ख़ुद से, कुछ कठोर सवाल पूछते हैं। वे सवाल, जो अवाम ने नहीं पूछे थे, और यक़ीनन, जिनका निज़ाम ने कोई जवाब नहीं दिया था।

राज कपूर के स्‍वप्‍न उस सुरंग की तरह थे, जिसके दूरस्‍थ छोर पर रोशनी की एक कौंध दीखती थी। गुरुदत्‍त के स्‍वप्‍न उन दरवाज़ों की तरह थे, जो भीतर की ओर खुलते थे, लेकिन कोई राह सूझती न थी। 

लेकिन राज कपूर और गुरुदत्‍त में एक बात निश्चित ही समान है और वो यह कि इन दोनों के ही सिनेमा का स्‍वप्‍न-रोमान गहन नैतिक आलोड़नों से उपजता है। ये एक ऐसी शै है, जिसे नब्‍बे के बाद के सालों में हमने बेतरह गंवा दिया। आज हमारे प्रस्‍तावित नायक वे हैं, जो ख़ुद से सवाल नहीं पूछते और ख़ुद को किसी तरह के नैतिक कठघरे में नहीं खड़ा करते, जबकि राज कपूर और गुरुदत्‍त के नायक वे थे, जिन्‍होंने सबसे पहले ख़ुद को कसौटी पर कसा था। उनके स्‍वप्‍न एक तीक्ष्‍ण नैतिक आग्रह के उप उत्‍पाद थे।

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हिंदी सिनेमा का सबसे चर्चित, प्रतिष्ठित और विलक्षण स्‍वप्‍न दृश्‍य निर्विवाद रूप से 1951 में प्रदर्शित राज कपूर की फिल्‍म आवारा का है। वास्‍तव में यह एक दु:स्‍वप्‍न है और कई बिंदुओं पर तो यह साल्‍वादोर डाली और लुई बुनुएल के अतियथार्थवादी मानकों को छू लेता है, जिसमें शंकर-जयकिशन का ग्रैंड ऑर्केस्‍ट्रा उल्‍लास और उद्वेग के विपरीतधर्मी संवेगों को एक अनन्‍य दृश्‍यक्रम में गूंथ देता है। यह दृश्‍य हमारे स्‍वप्‍नों, आकांक्षाओं, भय और प्रत्‍याशाओं का विराट रंगमंच है। फ़ेदरीको फ़ेल्लिनी की अतिनाटकीयता के प्रतिरूप भारत में ऋत्विक घटक और गुरुदत्‍त स्‍वीकारे जाते रहे हैं, लेकिन इन दोनों के ही पास इस स्‍वप्‍न दृश्‍य जैसा इंटेंस और मेलोड्रैमिक कोई दृश्‍यखंड नहीं है। बरबस, मुक्तिबोध याद आते हैं : पिस गया वह भीतरी और बाहरी दोनों पाटों के बीच, ऐसी ट्रैजेडी है नीच। प्रेम और अपराध के दोराहे पर खड़े नायक के नैतिक आग्रह उसे अपनी नियति के अदृश्‍य देवताओं-प्रतिदेवताओं के सामने ला खड़ा कर देते हैं। व्‍यथित नायक के रूप में मानो नव आधुनिकता के दोराहे पर खड़ी समूची भारतीय नियति ही चीख़कर कहती है : ये भी कोई जिंदगी है! नहीं, मुझको अपनी बहार चाहिए। स्‍वर्गिक सीढि़यों से नायिका उतरकर आती है और अभिशप्‍त नायक को अपने साथ आशाओं की भोर की ओर ले जाती है। राज कपूर का सिनेमा सुरंग के छोर पर झलक रही रोशनी की इस एक कौंध को कभी नहीं भूलता। उसे रूपकों की अंगुली पकड़कर अपने यथार्थ को पुनर्परिभाषित करना आता है।

गुरुदत्‍त के पास इस तरह के कोई विराट स्‍वप्‍न दृश्‍य नहीं हैं। एक मायने में गुरुदत्‍त स्‍वप्‍नविहीन फिल्‍मकार हैं और यही वह स्‍वप्‍नविहीनता है, जो उन्‍हें एक अनिवार्य आत्‍मघात की ओर ले जाती है। वास्‍तव में गुरुदत्‍त के यहां स्‍वप्‍न से ज्‍़यादा महत्‍व जागृति और इलहाम के क्षणों का है। वह क्षण, जब शायर विजय को हठात यह महसूस होता है कि यह दुनिया फ़ानी बेमानी है, वह क्षण, जब निर्देशक सुरेश सिन्‍हा को शिद्दत से यह आभास होता है कि सफलता के प्रतिमान झूठे हैं। शायर विजय और नाकाम निर्देशक सिन्‍हा वे नायक हैं, जो सामाजिक विडंबनाओं में ख़ुद को झोंक देते हैं मानो ख़ुद से, अपनी अप्रासंगिकताओं से, एक किस्‍म का आत्‍मध्‍वंसात्‍मक प्रतिशोध ले रहे हों।

प्‍यासा में एक दृश्‍य है। फिल्‍म का ओपनिंग सीन है। भुलाए नहीं भूलता। यह स्‍वप्‍न तो नहीं, लेकिन स्‍वप्‍न की सरहद पर टहलता एक किस्‍म का उनींदापन है। नायक पस्‍त-परेशां है, लेकिन क़ुदरत मुस्‍करा रही है। पृष्‍ठभूमि में मोहम्‍मद रफ़ी की आवाज़ के तराशे हुए नुक़ूश खनकते हैं – ये हंसते हुए फूल, ये महका हुआ गुलशन। नायक एक भौंरे को निहार रहा है, जो फूल-दर-फूल डोलता जीवन का रस ले रहा है। तभी पल भर को वह भौंरा धरती पर उतरता है और किसी राहगीर के जूतों के नीचे कुचलकर मारा जाता है। इस एक क्षण गुरुदत्‍त के चेहरे के भाव पढ़ने लायक़ हैं। पृष्‍ठभूमि में रफ़ी अब भी गा रहे हैं – मैं दूं भी तो क्‍या दूं तुम्‍हें ऐ शोख़ नज़ारो, ले-दे के मेरे पास कुछ आंसू हैं कुछ आहें। फिल्‍म का मूड यहां सेट हो जाता है। वह हमारे अवचेतन में स्‍थापित कर दिया जाता है। सुख की अल्‍पायु, आशाओं का ह्रास और एक अनवरत अवसाद के इन केंद्रीय मानबिंदुओं का निर्वाह नायक पूरी फिल्‍म में करता है। गुरुदत्‍त के सिनेमा में जागृति के तमाम क्षण उनके श्रेष्‍ठ सिनेमाई क्षण हैं और उनके उनींदे नायक का यह करुण इलहाम संभवत: उनके यहां जागरण का श्रेष्‍ठतम क्षण है।

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सन् सैंतालीस में हिंदुस्‍तान की आज़ादी के क़रारनामे पर जब दस्‍तख़त किए गए थे, तब आधी रात थी और देश सो रहा था। एक मायने में वह स्‍वप्‍नों के क़रारनामे पर किए गए दस्‍तख़त थे। पंडित नेहरू ने अपने चिरस्‍मरणीय संबोधन में कहा : हम अपनी नियति से भेंट करने आगे बढ़ रहे हैं। कौन-से थे वे स्‍वप्‍न, और कौन-सी थी वह नियति? क्‍या उन स्‍वप्‍नों को अर्जित किया जा सकता, क्‍या उस नियति से भेंट की जा सकी? वास्‍तव में अधसदी से अधिक बीत जाने के बाद आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जिस एक चीज़ ने हमें सबसे ज्‍़यादा छला है, वह यह नहीं हैं कि किंचित हमारे स्‍वप्‍न पूरे न हो सके, बल्कि यह कि हमने अपने स्‍वप्‍नों से समझौता कर लिया, कि हमने स्‍वप्‍न देखना ही बंद कर दिया, कि हमने सफलतावाद-विज्ञापनवाद द्वारा प्रस्‍तावित लालसाओं को अपने स्‍वप्‍नों के सिंहद्वार पर विराजित कर दिया। राज कपूर और गुरुदत्‍त के नायकों की तरह हम अब ख़ुद से सवाल नहीं पूछते, ख़ुद को कठघरे में खड़ा नहीं करते, हममें वह आत्‍मद्रोह नहीं। हमने अपने समय के देवताओं और प्रतिदेवताओं को संबोधित करना बंद कर दिया।
यह विरोधाभास लग सकता है, लेकिन चकाचौंध और होशियारी की इन भूलभुलैयाओं में वे स्‍वप्‍न और उन स्‍वप्‍नों की स्‍मृति ही शायद हमारे लिए सबसे कारगर साबित हो सकते हैं। अपने विस्‍थापित स्‍वप्‍नों को पीछे लौटकर देखना अपने भीतर की उम्‍मीद को जुगाए-जगाए रखना है और यही एक सार्थक और प्रतिबद्ध सिनेमा का सबसे बड़ा बल है।

Sunday 6 May 2012

अफ़सानों के प्रेत



ये भोपाल का मिंटो हॉल है। पुराना विधानसभा भवन। सम्राट जॉर्ज पंचम के ताज के आकार की ये इमारत 1909 में बनना शुरू हुई थी और इसका एक लंबा और दिलचस्‍प इतिहास है, लेकिन कल शाम बुझते सूरज की लौ में अब वीरान हो चुकी इस इमारत के अहाते में टहलते मुझे एक अजीब ख्‍़याल आया।

मैं मिंटो हॉल की तवारीख़ पढ़ रहा था कि एक ब्‍योरे पर मेरी नज़र ठहर गई : सन् 1946 से 1956 तक यहां हमीदिया कॉलेज लगा था।

मिंटो हॉल का किसी ज़माने में शाही मेहमानख़ाना होना भुलाया जा सकता है, उसका चालीस साल तक मध्‍यप्रदेश का असेंबली हाउस होना भी भुलाया जा सकता है, लेकिन उसका किसी ज़माने में हमीदिया कॉलेज होना एक ऐसी इबारत है, जिसे भुलाना मुश्किल है, जिसमें चंद बारौनक अफ़साने निहां हैं।

सोचता हूं उन दस सालों में किन्‍होंने यहां तालीम ली होगी? और जिन्‍होंने, तालीम के उन दिनों में मोहब्‍बत का तसव्‍वुर किया होगा, वे आज कहां होंगे? क्‍या आज वे यहीं इसी शहर में होंगे, होंगे तो कभी इस इमारत के सामने से गुज़रते होंगे? उस वक्‍़त कौन-से एहसास उनके कलेजों में मचलते होंगे? कौन-से भूले हुए ख्‍़वाब याद आते होंगे?

क्‍यूंकि बिला शक़, मोहब्‍बत एक ख्‍़वाब है। और ख्‍़वाबों की तामीर होती नहीं, जो होता है, मुरादों का मंजिले-मक़सूद पर पहुंच जाना भले हो, तामीरे ख्‍़वाब नहीं होता।

क्‍या मिंटो हॉल के बरामदों को आज भी वे खिलखिलाहटें याद होंगी? आरज़ू से चेहरों का सुर्ख हो जाना याद होगा? क्‍या इन अहातों ने उन रुक्‍़क़ों की रोशनी की एक झलक देखी होगी, जो एहतियात से किसी के हवाले किए गए थे, जिसमें मोहब्‍बतों को ज़ाहिर किया गया था? आज कहां होंगे वे रुक्‍़क़े, कहां होंगी वे खिलखिलाहटें, जिन ज़ेहनों में वस्‍ल के ख्‍़वाब सजे थे, उन ज़ेहनों में आज अख़बार की कौन-सी ख़बर सरक रही होगी?

उफ़्फ़, कोई भी पत्‍थर उठाएं, अफ़सानों के प्रेत हमें घेर लेते हैं। तो क्‍या हम अपनी ही कामनाओं का एक सुदीर्घ उत्‍तर-जीवन हैं।

Wednesday 2 May 2012

ईश्‍वर का मौन

'गॉड्स साइलेंस'। ईश्‍वर का मौन।

अरसे बाद कोई फिल्‍म देखी। इंगमर बर्गमैन की 'विंटर लाइट' कोई सालभर पहले भी देखी थी। तभी से ख्‍़याल था यह फिल्‍म दोबारा देखना है। एक साल से 'विंटर लाइट' कलेजे के किसी कोने में पाले की तरह जमी थी।

यह फिल्‍म ईश्‍वर के मौन के बारे में है। यह फिल्‍म ईश्‍वर की अनुपस्थिति के बारे में है।

यह फिल्‍म अस्तित्‍व के 'वृहद अरण्‍य' में एक संबल की अनुपस्थिति के विषय में है।

'विंटर लाइट' यातना के अभिप्रायों पर भी बात करती है। वह पूछती है कि ईश्‍वर के बेटे को जब सूली पर चढ़ाया गया, तो उसकी शारीरिक यातना का इतना बखान क्‍यों किया जाता है? वैसी यातनाएं तो जाने कितने नश्‍वर प्राणी आजीवन झेलते हैं। नहीं उसकी यातना कुछ और है। उसकी यातना न समझे जाने की है, अकेला छोड़ दिए जाने की है। तभी तो सूली पर चढ़ाए जाने के बाद ईश्‍वर के बेटे ने परमपिता को पुकारते हुए कहा था : हे प्रभु, तुम्‍हें मुझे क्‍यूं भुला दिया?

यह फिल्‍म ईश्‍वर द्वारा यातना के क्षणों में हमें भुला दिए जाने के बारे में है। यह फिल्‍म हमें अकेला कर जाती है।

सिने समीक्षक अक्‍सर कहते हैं कि यह इंगमर बर्गमैन के कैथोलिक विश्‍वासों की पड़ताल करती फिल्‍म है। 'विंटर लाइट' को 'थ्रू अ ग्‍लास डार्कली' और 'द साइलेंस' के साथ बर्गमैन की रिलीजियस फ़ेथ ट्रायलॉजी कहा भी जाता है। लेकिन वास्‍तव में यह फिल्‍म किन्‍हीं आस्‍थाओं के बारे में नहीं है, यह फिल्‍म आस्‍थाओं की असंभवता के बारे में है, जैसाकि फिल्‍म के अंत में मार्ता, तोमास से कहती है : काश कि हम विश्‍वास कर पाते! ओह, हम विश्‍वास कर पाने में असमर्थ क्‍यों हैं?

इंगमर बर्गमैन अपने चरित्रों की आत्‍माओं में गहरे तक घुसपैठ करते हैं। जिन नश्‍वर प्राणियों को ईश्‍वर ने भुला दिया, उन्‍हें बर्गमैन अपने संशयों में अकेला छोड़ने को हरगिज़ तैयार नहीं।

Friday 13 April 2012

हरे मोम की पत्तियां खिड़की पर दस्‍तक देती हैं

हरे मोम की पत्तियां खिड़की पर दस्‍तक देती हैं। अपराह्न के कोई साढ़े पांच बज रहे होते हैं। मैं उन्‍हें सुनता नहीं, लेकिन देख लेता हूं। हरे मोम की पत्तियां बहुत आहिस्‍ते से बोलती हैं।

खिड़कियों के भीतर जो है, वह किसके बाहर है? बाहर का भीतर कैसा होता होगा?

मैं एक हरी आहट देखता हूं, मैं एक हरी छांह का स्‍पर्श अनुभव करता हूं। लेकिन मैं यह सब सुन नहीं पाता। हरी धूप की सांसें बहुत मद्धम लय पर चलती है।

(तस्‍वीर : मेरे कैमरे से।)

Wednesday 11 April 2012

भेंट में मिला भोपाल

पति के क़त्‍ल के बाद रानी कमलापति ने चैनपुर-बारा के गौंड राजाओं से रक्षा के लिए इस्‍लामनगर के दुर्दांत अफ़गान लड़ाके दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां को बुलावा तो भेज दिया, लेकिन उनके पास दोस्‍त को इसके ऐवज़ में देने के लिए ज्‍़यादा रक़म नहीं थी।

दोस्‍त ने रानी के अनुरोध को क़बूल करते हुए शत्रु गौंड राजाओं को निर्ममता से हलाक़ कर दिया। रानी ने दोस्‍त को एक लाख रुपए देने का वायदा किया था, लेकिन वे उसे महज़ पचास हज़ार रुपए ही दे पाईं। अब सवाल यह था कि बाक़ी पचास हज़ार रुपयों का इंतज़ाम कैसे किया जाए।

रानी ने फ़ैसला किया कि इन रुपयों के ऐवज़ में बेरसिया और गिन्‍नौर के बीच बड़ी झील के किनारे आबाद बस्‍ती दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां को तोहफ़े में दे दी जाए।

ये बस्‍ती भोपाल थी।

भेंट में मिला भोपाल दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां की सल्‍तनत की गादी बना और इसी के साथ भोपाल रियासत की शुरुआत हुई। ये कोई 1720 के आसपास की बात है।

(शहरयार ख़ां की किताब 'द बेगम्‍स ऑफ़ भोपाल' को आज बांचना शुरू कर दिया। ये ख़ूबसूरत किताब वीवा बुक्‍स से आई है। पाकिस्‍तान के वरिष्‍ठ राजनयिक रहे शहरयार ख़ां भोपाल रियासत के वंशज हैं।)

Tuesday 10 April 2012

हर शहर में चंद गली-मोहल्ले रहते हैं

अमिताभ बच्‍चन की ‘डॉन’ में बंबई नगरिया पर एक गाना था, जिसके अंतरे में कुछ इस आशय की पंक्तियां हैं : कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा, चर्च का गेट है चर्च है लापता। सोचता हूं अगर हिंदुस्‍तान के गली-मोहल्‍लों के नामों के बारे में इसी तरह के सवाल पूछे जाएं तो एक अच्छा-खासा ‘मोहल्ला पुराण’ तैयार हो सकता है।


मिसाल के तौर पर उज्‍जैन में एक गली है, जो नमकमंडी कहलाती है। इससे आगे का चौक खाराकुआं है। लेकिन इन दोनों का नमक से कोई ताल्‍लुक नहीं, यहां तो व्‍यापारियों की बसाहटें हैं। इसी तरह तोपखाने में कहीं कोई तोप नहीं, लोहे का पुल में अब लोहे का कोई पुल नहीं है और फ्रीगंज बस नाम का ही ‘फ्री’गंज है। वास्‍तव में शहर का सबसे महंगा इलाका फ्रीगंज ही है। ढाबारोड पर रोटी-खुराक नहीं मिलती, मिठाइयां मिलती हैं। दानीगेट नाम है, लेकिन दाता से ज्यादा यहां सवाली हैं। पानदरीबे में रबड़ी की दुकान मशहूर है, पान खाना हो तो दौलतगंज जाइए। अलबत्ता मगरमुंहा के नामकरण के पीछे जरूर एक दिलचस्प वाकिया है। सन तिहत्तर की पूर में यहां एक मगरमच्छ आकर फंस गया था, बस तभी से यह मोहल्ला हो गया मगरमुंहा।

 मोहल्‍लों के नामकरण की महिमा अपरंपार है। आमतौर पर मोहल्‍ले के नामों में पुरा, बाखल, दरीबा, चौक, गंज, कलां वगैरह जुड़ा होता है। कलां का इस्‍तेमाल बड़े गांव के लिए भी होता है। खुर्द इससे छोटा होता है। जैसे बड़ी खरसोद अगर खरसोद कलां है तो छोटी खरसोद कहलाएगी खरसोद खुर्द। बल्‍लीमारां से गालिब याद आते हैं। चूड़ीवालान-झंडेवालान शाने-दिल्‍ली हैं। लेकिन ये बल्ली, चूड़ी और झंडे के पीछे क्या कहानी है, कौन जानता है।


मैं आज भी पिपलानी को भूल से पलासिया बोल जाता हूं। पिपलानी भोपाल में है, पलासिया इंदौर में। इंदौर की छप्‍पन दुकानें बड़ी मशहूर हैं। बीसियों साल हो गए, शहर फैलकर तूम्‍बा हो गया, लेकिन छप्‍पन दुकानें ‘अब तक छप्‍पन’ ही हैं। इंदौर में ही एक अन्‍य इलाका है : जूना रिसाला। रिसाला पत्रिकाओं-जर्नल्‍स वगैरह को कहते हैं। जूने का मतलब है पुराना। अब भला जूने रिसाले का किसी मोहल्‍ले के नाम से क्‍या सरोकार? हां, रिसाले का एक मतलब फौज-लश्कर से जरूर जुड़ा होता है। इससे तरतीब मिलाकर देखें तो पाएंगे कि इंदौर में एक ‘छावनी’ भी है। राजबाड़े के पास एक बड़ा लोकप्रिय बाजार है, जो कहलाता है : आड़ा बाजार। भई वाह, बहुत खूब।

कलकत्ते में पाड़े बहुत मिलेंगे : दर्जीपाड़ा, धोबीपाड़ा वगैरह। मुंबई में बांद्रा के साथ ही बोरीबंदर भी है। शैलेष मटियानी के एक उपन्यास का शीर्षक याद आता है : ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’। बोरीबंदर को ही पहले वीटी कहते थे, अब यह सीएसटी कहलाता है। थोड़ा-बहुत कबाड़ा अंग्रेजी उच्‍चारणों ने भी किया है। जैसे मुंबई का शीव अब सायन हो गया और भायखला बायकुला हो गया। अलबत्ता चिंचपोकली अब भी चिंचपोकली ही है और माशाअल्ला आने वाली कई मुद्दतों तक रहेगा।

और सबसे आखिर में अमां खां भोपाल। इधर कई गलियों-गेटों के नाम दिनों के नाम पर हैं, जैसे पीरगेट, जुमेराती गेट, इतवारा, बुधवारा, मंगलवारा वगैरह। एक पुल पातरा है, एक पुल पुख्ता, तो एक पुल बोगदा। एक सड़क घोड़ा नक्‍कास रोड कहलाती है।

लेकिन सबसे जबर्दस्त हैं भोपाल की गलियों के नाम। जरा गौर फरमाइए : शेखबत्ती की गली, गुलियादाई की गली, काली धोबन की गली, बाजे वालों की गली, टेढ़ा अतूत गली, बीसाहजारी गली। और हर गली के नाम से जुड़ा है कोई किस्सा। भोपाल के कवि राजेश जोशी ने अपनी किताब ‘किस्सा कोताह’ में भोपाल के गली-मोहल्लों से जुड़े दिलचस्प किस्सों का बखान बड़ी तबीयत से किया है।

हर शहर कई गलियों से बनता है, हर गली कई किस्‍सों से। वास्तव में कोई शहर अपनी अंगुलियों के पोरों पर नहीं, हथेली की गुदैली पर बसता है। और वहीं होते हैं मोहल्‍ले-पाड़े, गली-दरीबे, जो हर शहर का नमक होते हैं।

एक अनवरत क्षण...

द ऑनगोइंग मोमेंट... एक अनवरत क्षण।

मैं किताब के पन्‍ने उलटता हूं। कविता की एक पंक्ति पर मेरी नज़र टिक जाती है। हर वह चेहरा जो मेरे क़रीब से होकर गुज़रता है, एक राज़ है। यह वर्ड्सवर्थ है। मैं एक और पन्‍ना उलटता हूं, एक अश्‍वेत रोते हुए अकॉर्डियन बजा रहा है और उसकी महिला श्रोता उसे रोते हुए सुन रही हैं। तस्‍वीर के नीचे लिखा है : गोइंग होम, 1945। ये एड क्‍लार्क की तस्‍वीर है।

रुदन एक अनवरत क्षण है। अपरिचय का रोमान अनवरत है। घर जाना, अनवरत। तस्‍वीरें और कविताएं एक-दूसरे के कानों में फुसफुसाती हैं।

ये किताब सड़कों और बेंचों को अलग-अलग तरह से देखने के बारे में है। यह उन्‍हीं लेकिन इसके बावजूद अलग-अलग सड़कों और बेंचों के बारे में है। सड़कें कभी एक जैसी नहीं होतीं, न ही बेंचे एक जैसी होती हैं। सड़कें बेंचों के क़रीब से एक राज़ बनकर गुज़रती हैं। बेंचें एक ऐसा अकॉर्डियन हैं, जिसे बहुत दिनों से बजाया नहीं गया। रुदन अनवरत है, प्रतीक्षा अनवरत।

नींद का दरवाज़ा स्‍वप्‍न के दरवाज़े पर दस्‍तक देता है।

आह! ये एक ख़ूबसूरत किताब है। ये हमें उन दरवाज़ों की ख़बर देती है, जो रात की नंगी पीठ की तरफ़ खुलते हैं और रोशनियों को बांहों में भरने हाथ फैला देते हैं।

(ज्‍यौफ़ डायर की किताब 'द ऑनगोइंग मोमेंट' आज मिली।)

Monday 9 April 2012

क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए

(मोती मस्जिद के बाहर किताबों की वो पुरानी दूकान देखते ही अपने ख़ां ये समझ गए थे कि इधर अपने काम का कुछ मिलेगा। ऐसा ही हुआ। भोपाल के जुगराफिये-कल्‍चर-माज़ी का ब्‍योरेवार बयां फ़रमाता एक वाहिद रिसाला अपने हत्‍थे चढ़ गया। ये रिसाला साल 1998 में दिल्‍ली के बाबुल इल्‍म पब्लिकेशन से डॉ रजिया हामिद की सरपरस्‍ती में शाया हुआ था। इसके पन्‍ने उलटते हुए अपनों की नज़र जनाब मुहम्‍मद अहमद सब्‍ज़वारी के एक दिलचस्‍प ब्‍योरे पे पड़ी, जिसमें वो बता रहे थे कि अठारह सौ इक्‍यासी में जब ताज महल तामीर हुआ, तो भोपाल में क्‍या जश्‍न बरपा था। उस तफ़सील का एक मुख्‍़तसर हिस्‍सा यहां अर्ज कर रहा हूं, साथ ही आज के ताज की एक तस्‍वीर। इसे पढ़ें और फिर तस्‍वीर देखें तो शीन काफ़ निज़ाम का वो मिसरा बेसाख्‍़ता याद आता है : 'क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए।')

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"...जब शाहजहां बेगम रईसा हुईं तो वो शौक़त महल में रहती थीं। फिर उन्‍होंने महल्‍ला शाहजहानाबाद आबाद किया। यह एक मंसूबे के तहत तैयार हुआ। उसमें मुख्‍़तलिफ़ महलात मसलन ताज महल, आली मंजिल, बेनज़ीर, गुलशन-आलम, सुर्ख महल, सब्‍ज़ महल वग़ैरा बनवाए। उनके क़ुर्ब जवार में नवाब मंजिल, बारह महमल, अमीरगंज, क़ैसरगंज, मुग़लपुरा, ख्‍़वासपुरा के महल्‍ले तामीर किए। अठारह सौ इक्‍यासी ईस्‍वी में वो ताज महल में मुंतकिल हुईं और ताज की तैयारी का जश्‍न मनाया गया, जिसमें ग़रीबों को खाना खिलाया गया और लोगों को खाने के बाद मरज़ानी, मुक़ेशी हार और सोने-चांदी के वर्कों में लिपटी गिलोरियां तक़सीम की गईं। महल में एक मकान सावन-भादो के नाम से बनाया गया। इसके जश्‍न में ख़ादिमों और ख्‍़वासों को जाफ़रानी जोड़े दिए गए। ख्‍़वास को रंग से भरा हुआ एक चांदी का कटोरा, ख़ासदान और एक-एक पिचकारी दी गई। आला दर्जे के लोगों की पिचकारी सोने की थी। अंदुरून महल में एक मीना बाज़ार और उसके एक हिस्‍से में परी बाज़ार लगाया गया, जहां सिर्फ ख्‍़वातीनों की दुकानें थीं। ताज महल के बराबर पहले सरकारी गंजीख़ाना था। यहां ईदगाह की पहाड़ी के पानी को रोककर तालाब बनाया, जिसको शाहजहानी या शीरीं तालाब के नाम से मोसूम किया गया, मगर बाद में यह मोतिया तालाब के नाम से मशहूर हुआ। ताज के बिल्‍कुल बराबर उन्‍होंने एक अज़ीमोश्‍शान मस्जिद का मंसूबा बनाया। अगर यह उनके मंसूबे के मुताबिक़ तैयार हो जाती तो दुनिया की एक नादिर मस्जिद होती। दिल्‍ली की जामा से भी वाहिद। ये ही ताजुल मसाजिद थी।"