अगर हम आज पीछे मुड़कर भारत देश के तिथिक्रम पर नज़र डालें तो
पाएंगे कि 1950 का दशक उसके लिए स्वप्नों का दशक था। नवनिर्माण का स्वप्न,
पुनर्जीवन का स्वप्न। ये अलसभोर के सपने थे। कच्चे और रूमानी। उदात्त आदर्शवाद
इन स्वप्नों की लुकाठी थी, आशा उनका चश्मा। सन् सत्तावन में साहिर लुधियानवी
ने इक़बाल की ही तर्ज पर कहा था : ‘मिलजुल के इस वतन को, ऐसा
बनाएंगे हम, हैरत से मुंह तकेगा, सारा जहां हमारा।‘
लेकिन स्वप्न कभी तार्किक संगति की सीधी लक़ीर पर नहीं
चलते। इसीलिए 1950 का यही दशक सपने देखने के साथ ही स्वप्नभंग और मोहभंग का भी
दशक है। भोर के सपने यूं भी दीर्घजीवी सिद्ध नहीं होते। यथार्थ की तीखी धूप में स्वप्निल
आदर्श ओस की बूंदों की तरह बिला जाते हैं। सपनों की लुकाठी हाथ से छूट जाती है,
उम्मीद के चश्मों पर भाप की परत जम जाती है। कुछ दिखाई नहीं देता, कोई रास्ता
नहीं सूझता।
कह सकते हैं कि 1950 के दशक का समस्त सार्थक हिंदी सिनेमा
एक भारतीय नियति के स्वप्न और स्वप्नभंग का प्रतिनिधि सिनेमा है और बिमल रॉय,
गुरुदत्त और राज कपूर उसके अग्रणी फिल्मकार हैं।
लेकिन इन फिल्मकारों के रचनाकर्म की स्वप्न-काया में
प्रवेश करने से पहले कुछेक तथ्यों पर एक नज़र डाल लेना समीचीन होगा, जो कि फ़ौरी
तौर पर परिधि के लक्षण जान पड़ने के बावजूद कुछ बुनियादी संदर्भों को आलोकित कर
सकते हैं।
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ऊपर सन् सत्तावन का जो उल्लेख हुआ है, वह अकारण नहीं है।
सन् सत्तावन कई मायनों में एक महत्वपूर्ण साल था। यही वह साल था, जब 1757 के प्लासी
युद्ध के दो सौ बरस हुए थे। यही वह साल था, जब 1857 का सैनिक विद्रोह एक सदी
पुराना हो गया था। और यही वह साल था, जब आज़ाद हिंदुस्तान ने अपनी समप्रभुता का
एक दशक पूरा किया था। साथ ही मुल्क के बंटवारे के एक दशक पुराने ज़ख़्मों के हरा
हो जाने का सबब भी यही साल था। सन् सत्तावन का साल एक साथ औपनिवेशिक बंधनों के
पुष्ट होने, विमुक्ति के आलोड़नों के सतह पर उभर आने और एक विभाजित स्वतंत्रता
प्राप्त करने के स्मृति-पर्व का साल था। यह अतीतव्याकुल होने के साथ ही आने
वाले कल की ओर देखने का भी साल था। यह आत्ममंथन करने के साथ ही दूरदृष्टिपूर्ण होने
का भी साल था।
यह नेहरूवियन आदर्शों के महिमागान के साथ ही उनके अनिवार्य पुनरावलोकन
का साल था।
और यही वह साल था, जब हिंदी सिनेमा के रजतपट पर ‘मदर इंडिया’, ‘प्यासा’, ‘नया दौर’, ‘दो आंखें बारह हाथ’ और ‘फिर सुबह होगी’ जैसी फिल्में
अवतरित होती हैं। ‘मदर इंडिया’ एक ग्रामीण स्त्री के
महान संघर्षों और अदम्य जिजीविषा की कहानी है, लेकिन सनद रहे कि इस फिल्म की
शुरुआत गांव में निर्मित बांध के उद्घाटन के एक दृश्य के साथ होती है। बांध के
उद्घाटन के लिए गांव के लोग ‘बूढ़ी मदर इंडिया’ को बुलाकर उसके
प्रति अपनी आदरांजलि ज्ञापित करते हैं। भारत-निर्माण के इसी दशक में नेहरू ने
बांधों को आधुनिक तीर्थ कहा था और समानता के समाजवादी आदर्शों का बड़ा हल्ला था,
जिसमें यक़ीनन स्त्री का भी अपना एक अधिकार क्षेत्र था। ‘मदर इंडिया’ का यह शुरुआती दृश्य
अपने मंतव्यों और अपनी राजनीति में पूरी तरह नेहरूवियन है। लेकिन ठीक इसी के
सामने इसी साल आई एक अन्य फिल्म ‘नया दौर’ को देखें तो पाएंगे
कि समाज में विकास के सोपानों पर मुस्तैदी से आगे बढ़ने के साथ ही विकास
प्रक्रिया में निहित अंतर्विरोध भी उभरने लगे थे। ‘नया दौर’ राज्यतंत्र द्वारा
प्रस्तावित विकास के मॉडल के समक्ष ग्रामीणों के प्रतिरोध की कहानी है। इन अर्थों
में यह फिल्म विकास विरोधी द्वैधा के उसी मानस को जाने-अनजाने प्रतिफलित करती है,
जो आने वाले सालों में नेहरूवियन विरोधाभासों का अभिन्न अंग बनते चले गए थे। भारत
के सामने कुछ कठोर विकल्प थे और उसे अपने रूमानी आग्रहों की क़ीमत पर उनमें से
किसी का चयन करना था।
इन अर्थों में पचास का दशक और ख़ासतौर पर सत्तावन का साल
स्वप्नशीलता और स्वप्नभंग के एक साथ दुष्कर निर्वाह का साल था। ‘फिर सुबह होगी’ में साहिर का गीत
है, ‘वो सुबह कभी तो आएगी’, लेकिन ‘प्यासा’ में यही साहिर लिखते हैं, ‘ये दुनिया अगर मिल
भी जाए तो क्या है’ और ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं?’ जश्ने–आज़ादी का हंगामाखेज़
ज़माना धूल के ग़ुबारों में पीछे छूट चुका था, आज़ाद हिंदुस्तां के दूध के दांत
टूट चुके थे। हम अपना गणतंत्र रच चुके थे और रियासतों का विलय कर एक समप्रभु राष्ट्र
का गठन कर चुके थे। वायदों की मियाद पूरी हो चुकी थी या पूरी हो रही थी। वह ख़ुद
से कुछ तल्ख़ सवाल पूछने का दौर था, लेकिन वह अपने स्वप्नों का मान रखने का भी
दौर था।
इस पृष्ठभूमि में जब हम हिंदी सिनेमा के दो प्रतिनिधि
नायक-निर्देशकों गुरुदत्त और राज कपूर के कृतित्व में उनके स्वप्न-रोमान का
विश्लेषण करते हैं तो हम उनकी विडंबनाओं और विद्रूपों के साथ ही उनकी उमंगों और
उम्मीदों को भी समझने की दिशा में कुछ क़दम आगे बढ़ा सकते हैं।
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गुरुदत्त के स्वप्न क्या थे? राज कपूर के स्वप्न
क्या थे? इन दोनों के सिनेमा में स्वप्न कितना है, यथार्थ कितना? हक़ीक़त कितनी है,
फ़साना कितना है? या क्या उनके स्वप्न निजी थे या सार्वभौम? उनके यहां स्वप्नभंग
का दंश वैयक्तिक था या समष्टिगत? उनके सपने उनके लिए ज़ख़्म थे या मरहम? मर्ज थे या राहत।
और कैसा तौर, कैसा डौल था उन सपनों का?
गुरुदत्त और राज कपूर दोनों के ही कृतित्व के पीछे साहिर
लुधियानवी, शैलेंद्र और ख़्वाज़ा अहमद अब्बास जैसे प्रगतिशील स्वर सक्रिय थे।
समाजवादी हलक़ों से आए इन रचनाकारों ने अनायास ही गुरुदत्त और राज कपूर के सिनेमा
को एक स्वप्नशीलता का शिल्प दिया था, अपने समय का एक आलोचनात्मक पाठ तैयार
करने का संकल्प दिया था, लेकिन इसके बावजूद इन दोनों अभिनेताओं-निर्देशकों के
रास्ते अलग-अलग थे। गुरुदत्त का क्षोभ एक सीमा के बाद आत्मद्रोह बन जाता है। यह
अकारण नहीं है कि उन्होंने आत्मघात किया था। वहीं राज कपूर के यहां यह युगबोध की
एक विडंबनामूलक अवस्थिति तक ही महदूद रहता है। गुरुदत्त के यहां वेदना के
घात-प्रतिघात कहीं ज़्यादा सघन थे। राज कपूर का भावबोध जहां भारतीय रूपकात्मकताओं
के अनुरूप था, वहीं गुरुदत्त में पश्चिमी दर्शन से प्रेरित अस्तित्ववादी आलोड़न लक्ष्य
किया जा सकता है।
‘श्री 420’ की नायिका का नाम विद्या था और खलनायिका का नाम माया था। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी का न
केवल नाम गंगा था, बल्कि वह गंगा होने के रूपक को दूर तक जीती भी है। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में सौंदर्य के
मानकों की विवेचना है। इस तरह की भारतीय मिथकों से अनुप्राणित रूपकात्मकता राज
कपूर के सिनेमा की एक विशिष्ट पहचान रही है। इसके उलट गुरुदत्त के यहां क्षोभ का
उत्ताप उन्हें किन्हीं सूक्ष्म प्रतीकों और रूपकों में जाने से रोकता है और वे
सीधे मंच पर आकर हमसे, और सबसे ज़्यादा ख़ुद से, कुछ कठोर सवाल पूछते हैं। वे
सवाल, जो अवाम ने नहीं पूछे थे, और यक़ीनन, जिनका निज़ाम ने कोई जवाब नहीं दिया
था।
राज कपूर के स्वप्न उस सुरंग की तरह थे, जिसके दूरस्थ
छोर पर रोशनी की एक कौंध दीखती थी। गुरुदत्त के स्वप्न उन दरवाज़ों की तरह थे, जो
भीतर की ओर खुलते थे, लेकिन कोई राह सूझती न थी।
लेकिन राज कपूर और गुरुदत्त में एक बात निश्चित ही समान है
और वो यह कि इन दोनों के ही सिनेमा का स्वप्न-रोमान गहन नैतिक आलोड़नों से उपजता
है। ये एक ऐसी शै है, जिसे नब्बे के बाद के सालों में हमने बेतरह गंवा दिया। आज
हमारे प्रस्तावित नायक वे हैं, जो ख़ुद से सवाल नहीं पूछते और ख़ुद को किसी तरह
के नैतिक कठघरे में नहीं खड़ा करते, जबकि राज कपूर और गुरुदत्त के नायक वे थे,
जिन्होंने सबसे पहले ख़ुद को कसौटी पर कसा था। उनके स्वप्न एक तीक्ष्ण नैतिक
आग्रह के उप उत्पाद थे।
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हिंदी सिनेमा का सबसे चर्चित, प्रतिष्ठित और विलक्षण स्वप्न
दृश्य निर्विवाद रूप से 1951 में प्रदर्शित राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ का है। वास्तव में
यह एक दु:स्वप्न है और कई बिंदुओं पर तो यह साल्वादोर डाली और लुई बुनुएल के
अतियथार्थवादी मानकों को छू लेता है, जिसमें शंकर-जयकिशन का ग्रैंड ऑर्केस्ट्रा
उल्लास और उद्वेग के विपरीतधर्मी संवेगों को एक अनन्य दृश्यक्रम में गूंथ देता
है। यह दृश्य हमारे स्वप्नों, आकांक्षाओं, भय और प्रत्याशाओं का विराट रंगमंच
है। फ़ेदरीको फ़ेल्लिनी की अतिनाटकीयता के प्रतिरूप भारत में ऋत्विक घटक और
गुरुदत्त स्वीकारे जाते रहे हैं, लेकिन इन दोनों के ही पास इस स्वप्न दृश्य
जैसा इंटेंस और मेलोड्रैमिक कोई दृश्यखंड नहीं है। बरबस, मुक्तिबोध याद आते हैं :
‘पिस गया वह भीतरी और
बाहरी दोनों पाटों के बीच, ऐसी ट्रैजेडी है नीच।‘ प्रेम और अपराध के
दोराहे पर खड़े नायक के नैतिक आग्रह उसे अपनी नियति के अदृश्य देवताओं-प्रतिदेवताओं
के सामने ला खड़ा कर देते हैं। व्यथित नायक के रूप में मानो नव आधुनिकता के
दोराहे पर खड़ी समूची भारतीय नियति ही चीख़कर कहती है : ‘ये भी कोई जिंदगी है! नहीं, मुझको अपनी
बहार चाहिए।‘ स्वर्गिक सीढि़यों से नायिका उतरकर आती है और अभिशप्त नायक को अपने साथ
आशाओं की भोर की ओर ले जाती है। राज कपूर का सिनेमा सुरंग के छोर पर झलक रही रोशनी
की इस एक कौंध को कभी नहीं भूलता। उसे रूपकों की अंगुली पकड़कर अपने यथार्थ को
पुनर्परिभाषित करना आता है।
गुरुदत्त के पास इस तरह के कोई विराट स्वप्न दृश्य नहीं
हैं। एक मायने में गुरुदत्त स्वप्नविहीन फिल्मकार हैं और यही वह स्वप्नविहीनता
है, जो उन्हें एक अनिवार्य आत्मघात की ओर ले जाती है। वास्तव में गुरुदत्त के
यहां स्वप्न से ज़्यादा महत्व जागृति और इलहाम के क्षणों का है। वह क्षण, जब
शायर विजय को हठात यह महसूस होता है कि यह दुनिया फ़ानी बेमानी है, वह क्षण, जब
निर्देशक सुरेश सिन्हा को शिद्दत से यह आभास होता है कि सफलता के प्रतिमान झूठे
हैं। शायर विजय और नाकाम निर्देशक सिन्हा वे नायक हैं, जो सामाजिक विडंबनाओं में
ख़ुद को झोंक देते हैं मानो ख़ुद से, अपनी अप्रासंगिकताओं से, एक किस्म का आत्मध्वंसात्मक
प्रतिशोध ले रहे हों।
‘प्यासा’ में एक दृश्य है। फिल्म का ओपनिंग सीन है। भुलाए नहीं भूलता। यह स्वप्न
तो नहीं, लेकिन स्वप्न की सरहद पर टहलता एक किस्म का उनींदापन है। नायक पस्त-परेशां
है, लेकिन क़ुदरत मुस्करा रही है। पृष्ठभूमि में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ के
तराशे हुए नुक़ूश खनकते हैं – ‘ये हंसते हुए फूल, ये महका हुआ गुलशन।‘ नायक एक भौंरे को
निहार रहा है, जो फूल-दर-फूल डोलता जीवन का रस ले रहा है। तभी पल भर को वह भौंरा
धरती पर उतरता है और किसी राहगीर के जूतों के नीचे कुचलकर मारा जाता है। इस एक क्षण
गुरुदत्त के चेहरे के भाव पढ़ने लायक़ हैं। पृष्ठभूमि में रफ़ी अब भी गा रहे हैं
– ‘मैं दूं भी तो क्या
दूं तुम्हें ऐ शोख़ नज़ारो, ले-दे के मेरे पास कुछ आंसू हैं
कुछ आहें।‘ फिल्म का मूड यहां सेट हो जाता है। वह हमारे अवचेतन में स्थापित कर दिया
जाता है। सुख की अल्पायु, आशाओं का ह्रास और एक अनवरत अवसाद के इन केंद्रीय
मानबिंदुओं का निर्वाह नायक पूरी फिल्म में करता है। गुरुदत्त के सिनेमा में
जागृति के तमाम क्षण उनके श्रेष्ठ सिनेमाई क्षण हैं और उनके उनींदे नायक का यह
करुण इलहाम संभवत: उनके यहां जागरण का श्रेष्ठतम क्षण है।
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सन् सैंतालीस में हिंदुस्तान की आज़ादी के क़रारनामे पर जब
दस्तख़त किए गए थे, तब आधी रात थी और देश सो रहा था। एक मायने में वह स्वप्नों
के क़रारनामे पर किए गए दस्तख़त थे। पंडित नेहरू ने अपने चिरस्मरणीय संबोधन में
कहा : ‘हम अपनी नियति से भेंट करने आगे बढ़ रहे हैं।‘ कौन-से थे वे स्वप्न,
और कौन-सी थी वह नियति? क्या उन स्वप्नों को अर्जित किया जा सकता, क्या
उस नियति से भेंट की जा सकी? वास्तव में अधसदी से अधिक बीत जाने के बाद आज जब
हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जिस एक चीज़ ने हमें सबसे ज़्यादा छला
है, वह यह नहीं हैं कि किंचित हमारे स्वप्न पूरे न हो सके, बल्कि यह कि हमने अपने
स्वप्नों से समझौता कर लिया, कि हमने स्वप्न देखना ही बंद कर दिया, कि हमने
सफलतावाद-विज्ञापनवाद द्वारा प्रस्तावित लालसाओं को अपने स्वप्नों के सिंहद्वार
पर विराजित कर दिया। राज कपूर और गुरुदत्त के नायकों की तरह हम अब ख़ुद से सवाल
नहीं पूछते, ख़ुद को कठघरे में खड़ा नहीं करते, हममें वह आत्मद्रोह नहीं। हमने
अपने समय के देवताओं और प्रतिदेवताओं को संबोधित करना बंद कर दिया।
यह विरोधाभास लग सकता है, लेकिन चकाचौंध और होशियारी की इन
भूलभुलैयाओं में वे स्वप्न और उन स्वप्नों की स्मृति ही शायद हमारे लिए सबसे
कारगर साबित हो सकते हैं। अपने विस्थापित स्वप्नों को पीछे लौटकर देखना अपने
भीतर की उम्मीद को जुगाए-जगाए रखना है और यही एक सार्थक और प्रतिबद्ध सिनेमा का
सबसे बड़ा बल है।