Sunday 6 May 2012

अफ़सानों के प्रेत



ये भोपाल का मिंटो हॉल है। पुराना विधानसभा भवन। सम्राट जॉर्ज पंचम के ताज के आकार की ये इमारत 1909 में बनना शुरू हुई थी और इसका एक लंबा और दिलचस्‍प इतिहास है, लेकिन कल शाम बुझते सूरज की लौ में अब वीरान हो चुकी इस इमारत के अहाते में टहलते मुझे एक अजीब ख्‍़याल आया।

मैं मिंटो हॉल की तवारीख़ पढ़ रहा था कि एक ब्‍योरे पर मेरी नज़र ठहर गई : सन् 1946 से 1956 तक यहां हमीदिया कॉलेज लगा था।

मिंटो हॉल का किसी ज़माने में शाही मेहमानख़ाना होना भुलाया जा सकता है, उसका चालीस साल तक मध्‍यप्रदेश का असेंबली हाउस होना भी भुलाया जा सकता है, लेकिन उसका किसी ज़माने में हमीदिया कॉलेज होना एक ऐसी इबारत है, जिसे भुलाना मुश्किल है, जिसमें चंद बारौनक अफ़साने निहां हैं।

सोचता हूं उन दस सालों में किन्‍होंने यहां तालीम ली होगी? और जिन्‍होंने, तालीम के उन दिनों में मोहब्‍बत का तसव्‍वुर किया होगा, वे आज कहां होंगे? क्‍या आज वे यहीं इसी शहर में होंगे, होंगे तो कभी इस इमारत के सामने से गुज़रते होंगे? उस वक्‍़त कौन-से एहसास उनके कलेजों में मचलते होंगे? कौन-से भूले हुए ख्‍़वाब याद आते होंगे?

क्‍यूंकि बिला शक़, मोहब्‍बत एक ख्‍़वाब है। और ख्‍़वाबों की तामीर होती नहीं, जो होता है, मुरादों का मंजिले-मक़सूद पर पहुंच जाना भले हो, तामीरे ख्‍़वाब नहीं होता।

क्‍या मिंटो हॉल के बरामदों को आज भी वे खिलखिलाहटें याद होंगी? आरज़ू से चेहरों का सुर्ख हो जाना याद होगा? क्‍या इन अहातों ने उन रुक्‍़क़ों की रोशनी की एक झलक देखी होगी, जो एहतियात से किसी के हवाले किए गए थे, जिसमें मोहब्‍बतों को ज़ाहिर किया गया था? आज कहां होंगे वे रुक्‍़क़े, कहां होंगी वे खिलखिलाहटें, जिन ज़ेहनों में वस्‍ल के ख्‍़वाब सजे थे, उन ज़ेहनों में आज अख़बार की कौन-सी ख़बर सरक रही होगी?

उफ़्फ़, कोई भी पत्‍थर उठाएं, अफ़सानों के प्रेत हमें घेर लेते हैं। तो क्‍या हम अपनी ही कामनाओं का एक सुदीर्घ उत्‍तर-जीवन हैं।

Wednesday 2 May 2012

ईश्‍वर का मौन

'गॉड्स साइलेंस'। ईश्‍वर का मौन।

अरसे बाद कोई फिल्‍म देखी। इंगमर बर्गमैन की 'विंटर लाइट' कोई सालभर पहले भी देखी थी। तभी से ख्‍़याल था यह फिल्‍म दोबारा देखना है। एक साल से 'विंटर लाइट' कलेजे के किसी कोने में पाले की तरह जमी थी।

यह फिल्‍म ईश्‍वर के मौन के बारे में है। यह फिल्‍म ईश्‍वर की अनुपस्थिति के बारे में है।

यह फिल्‍म अस्तित्‍व के 'वृहद अरण्‍य' में एक संबल की अनुपस्थिति के विषय में है।

'विंटर लाइट' यातना के अभिप्रायों पर भी बात करती है। वह पूछती है कि ईश्‍वर के बेटे को जब सूली पर चढ़ाया गया, तो उसकी शारीरिक यातना का इतना बखान क्‍यों किया जाता है? वैसी यातनाएं तो जाने कितने नश्‍वर प्राणी आजीवन झेलते हैं। नहीं उसकी यातना कुछ और है। उसकी यातना न समझे जाने की है, अकेला छोड़ दिए जाने की है। तभी तो सूली पर चढ़ाए जाने के बाद ईश्‍वर के बेटे ने परमपिता को पुकारते हुए कहा था : हे प्रभु, तुम्‍हें मुझे क्‍यूं भुला दिया?

यह फिल्‍म ईश्‍वर द्वारा यातना के क्षणों में हमें भुला दिए जाने के बारे में है। यह फिल्‍म हमें अकेला कर जाती है।

सिने समीक्षक अक्‍सर कहते हैं कि यह इंगमर बर्गमैन के कैथोलिक विश्‍वासों की पड़ताल करती फिल्‍म है। 'विंटर लाइट' को 'थ्रू अ ग्‍लास डार्कली' और 'द साइलेंस' के साथ बर्गमैन की रिलीजियस फ़ेथ ट्रायलॉजी कहा भी जाता है। लेकिन वास्‍तव में यह फिल्‍म किन्‍हीं आस्‍थाओं के बारे में नहीं है, यह फिल्‍म आस्‍थाओं की असंभवता के बारे में है, जैसाकि फिल्‍म के अंत में मार्ता, तोमास से कहती है : काश कि हम विश्‍वास कर पाते! ओह, हम विश्‍वास कर पाने में असमर्थ क्‍यों हैं?

इंगमर बर्गमैन अपने चरित्रों की आत्‍माओं में गहरे तक घुसपैठ करते हैं। जिन नश्‍वर प्राणियों को ईश्‍वर ने भुला दिया, उन्‍हें बर्गमैन अपने संशयों में अकेला छोड़ने को हरगिज़ तैयार नहीं।