ये भोपाल का मिंटो हॉल है। पुराना विधानसभा भवन। सम्राट जॉर्ज पंचम के ताज के आकार की ये इमारत 1909 में बनना शुरू हुई थी और इसका एक लंबा और दिलचस्प इतिहास है, लेकिन कल शाम बुझते सूरज की लौ में अब वीरान हो चुकी इस इमारत के अहाते में टहलते मुझे एक अजीब ख़्याल आया।
मैं मिंटो हॉल की तवारीख़ पढ़ रहा था कि एक ब्योरे पर मेरी नज़र ठहर गई : सन् 1946 से 1956 तक यहां हमीदिया कॉलेज लगा था।
मिंटो हॉल का किसी ज़माने में शाही मेहमानख़ाना होना भुलाया जा सकता है, उसका चालीस साल तक मध्यप्रदेश का असेंबली हाउस होना भी भुलाया जा सकता है, लेकिन उसका किसी ज़माने में हमीदिया कॉलेज होना एक ऐसी इबारत है, जिसे भुलाना मुश्किल है, जिसमें चंद बारौनक अफ़साने निहां हैं।
सोचता हूं उन दस सालों में किन्होंने यहां तालीम ली होगी? और जिन्होंने, तालीम के उन दिनों में मोहब्बत का तसव्वुर किया होगा, वे आज कहां होंगे? क्या आज वे यहीं इसी शहर में होंगे, होंगे तो कभी इस इमारत के सामने से गुज़रते होंगे? उस वक़्त कौन-से एहसास उनके कलेजों में मचलते होंगे? कौन-से भूले हुए ख़्वाब याद आते होंगे?
क्यूंकि बिला शक़, मोहब्बत एक ख़्वाब है। और ख़्वाबों की तामीर होती नहीं, जो होता है, मुरादों का मंजिले-मक़सूद पर पहुंच जाना भले हो, तामीरे ख़्वाब नहीं होता।
क्या मिंटो हॉल के बरामदों को आज भी वे खिलखिलाहटें याद होंगी? आरज़ू से चेहरों का सुर्ख हो जाना याद होगा? क्या इन अहातों ने उन रुक़्क़ों की रोशनी की एक झलक देखी होगी, जो एहतियात से किसी के हवाले किए गए थे, जिसमें मोहब्बतों को ज़ाहिर किया गया था? आज कहां होंगे वे रुक़्क़े, कहां होंगी वे खिलखिलाहटें, जिन ज़ेहनों में वस्ल के ख़्वाब सजे थे, उन ज़ेहनों में आज अख़बार की कौन-सी ख़बर सरक रही होगी?
उफ़्फ़, कोई भी पत्थर उठाएं, अफ़सानों के प्रेत हमें घेर लेते हैं। तो क्या हम अपनी ही कामनाओं का एक सुदीर्घ उत्तर-जीवन हैं।