Friday 13 April 2012

हरे मोम की पत्तियां खिड़की पर दस्‍तक देती हैं

हरे मोम की पत्तियां खिड़की पर दस्‍तक देती हैं। अपराह्न के कोई साढ़े पांच बज रहे होते हैं। मैं उन्‍हें सुनता नहीं, लेकिन देख लेता हूं। हरे मोम की पत्तियां बहुत आहिस्‍ते से बोलती हैं।

खिड़कियों के भीतर जो है, वह किसके बाहर है? बाहर का भीतर कैसा होता होगा?

मैं एक हरी आहट देखता हूं, मैं एक हरी छांह का स्‍पर्श अनुभव करता हूं। लेकिन मैं यह सब सुन नहीं पाता। हरी धूप की सांसें बहुत मद्धम लय पर चलती है।

(तस्‍वीर : मेरे कैमरे से।)

Wednesday 11 April 2012

भेंट में मिला भोपाल

पति के क़त्‍ल के बाद रानी कमलापति ने चैनपुर-बारा के गौंड राजाओं से रक्षा के लिए इस्‍लामनगर के दुर्दांत अफ़गान लड़ाके दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां को बुलावा तो भेज दिया, लेकिन उनके पास दोस्‍त को इसके ऐवज़ में देने के लिए ज्‍़यादा रक़म नहीं थी।

दोस्‍त ने रानी के अनुरोध को क़बूल करते हुए शत्रु गौंड राजाओं को निर्ममता से हलाक़ कर दिया। रानी ने दोस्‍त को एक लाख रुपए देने का वायदा किया था, लेकिन वे उसे महज़ पचास हज़ार रुपए ही दे पाईं। अब सवाल यह था कि बाक़ी पचास हज़ार रुपयों का इंतज़ाम कैसे किया जाए।

रानी ने फ़ैसला किया कि इन रुपयों के ऐवज़ में बेरसिया और गिन्‍नौर के बीच बड़ी झील के किनारे आबाद बस्‍ती दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां को तोहफ़े में दे दी जाए।

ये बस्‍ती भोपाल थी।

भेंट में मिला भोपाल दोस्‍त मोहम्‍मद ख़ां की सल्‍तनत की गादी बना और इसी के साथ भोपाल रियासत की शुरुआत हुई। ये कोई 1720 के आसपास की बात है।

(शहरयार ख़ां की किताब 'द बेगम्‍स ऑफ़ भोपाल' को आज बांचना शुरू कर दिया। ये ख़ूबसूरत किताब वीवा बुक्‍स से आई है। पाकिस्‍तान के वरिष्‍ठ राजनयिक रहे शहरयार ख़ां भोपाल रियासत के वंशज हैं।)

Tuesday 10 April 2012

हर शहर में चंद गली-मोहल्ले रहते हैं

अमिताभ बच्‍चन की ‘डॉन’ में बंबई नगरिया पर एक गाना था, जिसके अंतरे में कुछ इस आशय की पंक्तियां हैं : कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा, चर्च का गेट है चर्च है लापता। सोचता हूं अगर हिंदुस्‍तान के गली-मोहल्‍लों के नामों के बारे में इसी तरह के सवाल पूछे जाएं तो एक अच्छा-खासा ‘मोहल्ला पुराण’ तैयार हो सकता है।


मिसाल के तौर पर उज्‍जैन में एक गली है, जो नमकमंडी कहलाती है। इससे आगे का चौक खाराकुआं है। लेकिन इन दोनों का नमक से कोई ताल्‍लुक नहीं, यहां तो व्‍यापारियों की बसाहटें हैं। इसी तरह तोपखाने में कहीं कोई तोप नहीं, लोहे का पुल में अब लोहे का कोई पुल नहीं है और फ्रीगंज बस नाम का ही ‘फ्री’गंज है। वास्‍तव में शहर का सबसे महंगा इलाका फ्रीगंज ही है। ढाबारोड पर रोटी-खुराक नहीं मिलती, मिठाइयां मिलती हैं। दानीगेट नाम है, लेकिन दाता से ज्यादा यहां सवाली हैं। पानदरीबे में रबड़ी की दुकान मशहूर है, पान खाना हो तो दौलतगंज जाइए। अलबत्ता मगरमुंहा के नामकरण के पीछे जरूर एक दिलचस्प वाकिया है। सन तिहत्तर की पूर में यहां एक मगरमच्छ आकर फंस गया था, बस तभी से यह मोहल्ला हो गया मगरमुंहा।

 मोहल्‍लों के नामकरण की महिमा अपरंपार है। आमतौर पर मोहल्‍ले के नामों में पुरा, बाखल, दरीबा, चौक, गंज, कलां वगैरह जुड़ा होता है। कलां का इस्‍तेमाल बड़े गांव के लिए भी होता है। खुर्द इससे छोटा होता है। जैसे बड़ी खरसोद अगर खरसोद कलां है तो छोटी खरसोद कहलाएगी खरसोद खुर्द। बल्‍लीमारां से गालिब याद आते हैं। चूड़ीवालान-झंडेवालान शाने-दिल्‍ली हैं। लेकिन ये बल्ली, चूड़ी और झंडे के पीछे क्या कहानी है, कौन जानता है।


मैं आज भी पिपलानी को भूल से पलासिया बोल जाता हूं। पिपलानी भोपाल में है, पलासिया इंदौर में। इंदौर की छप्‍पन दुकानें बड़ी मशहूर हैं। बीसियों साल हो गए, शहर फैलकर तूम्‍बा हो गया, लेकिन छप्‍पन दुकानें ‘अब तक छप्‍पन’ ही हैं। इंदौर में ही एक अन्‍य इलाका है : जूना रिसाला। रिसाला पत्रिकाओं-जर्नल्‍स वगैरह को कहते हैं। जूने का मतलब है पुराना। अब भला जूने रिसाले का किसी मोहल्‍ले के नाम से क्‍या सरोकार? हां, रिसाले का एक मतलब फौज-लश्कर से जरूर जुड़ा होता है। इससे तरतीब मिलाकर देखें तो पाएंगे कि इंदौर में एक ‘छावनी’ भी है। राजबाड़े के पास एक बड़ा लोकप्रिय बाजार है, जो कहलाता है : आड़ा बाजार। भई वाह, बहुत खूब।

कलकत्ते में पाड़े बहुत मिलेंगे : दर्जीपाड़ा, धोबीपाड़ा वगैरह। मुंबई में बांद्रा के साथ ही बोरीबंदर भी है। शैलेष मटियानी के एक उपन्यास का शीर्षक याद आता है : ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’। बोरीबंदर को ही पहले वीटी कहते थे, अब यह सीएसटी कहलाता है। थोड़ा-बहुत कबाड़ा अंग्रेजी उच्‍चारणों ने भी किया है। जैसे मुंबई का शीव अब सायन हो गया और भायखला बायकुला हो गया। अलबत्ता चिंचपोकली अब भी चिंचपोकली ही है और माशाअल्ला आने वाली कई मुद्दतों तक रहेगा।

और सबसे आखिर में अमां खां भोपाल। इधर कई गलियों-गेटों के नाम दिनों के नाम पर हैं, जैसे पीरगेट, जुमेराती गेट, इतवारा, बुधवारा, मंगलवारा वगैरह। एक पुल पातरा है, एक पुल पुख्ता, तो एक पुल बोगदा। एक सड़क घोड़ा नक्‍कास रोड कहलाती है।

लेकिन सबसे जबर्दस्त हैं भोपाल की गलियों के नाम। जरा गौर फरमाइए : शेखबत्ती की गली, गुलियादाई की गली, काली धोबन की गली, बाजे वालों की गली, टेढ़ा अतूत गली, बीसाहजारी गली। और हर गली के नाम से जुड़ा है कोई किस्सा। भोपाल के कवि राजेश जोशी ने अपनी किताब ‘किस्सा कोताह’ में भोपाल के गली-मोहल्लों से जुड़े दिलचस्प किस्सों का बखान बड़ी तबीयत से किया है।

हर शहर कई गलियों से बनता है, हर गली कई किस्‍सों से। वास्तव में कोई शहर अपनी अंगुलियों के पोरों पर नहीं, हथेली की गुदैली पर बसता है। और वहीं होते हैं मोहल्‍ले-पाड़े, गली-दरीबे, जो हर शहर का नमक होते हैं।

एक अनवरत क्षण...

द ऑनगोइंग मोमेंट... एक अनवरत क्षण।

मैं किताब के पन्‍ने उलटता हूं। कविता की एक पंक्ति पर मेरी नज़र टिक जाती है। हर वह चेहरा जो मेरे क़रीब से होकर गुज़रता है, एक राज़ है। यह वर्ड्सवर्थ है। मैं एक और पन्‍ना उलटता हूं, एक अश्‍वेत रोते हुए अकॉर्डियन बजा रहा है और उसकी महिला श्रोता उसे रोते हुए सुन रही हैं। तस्‍वीर के नीचे लिखा है : गोइंग होम, 1945। ये एड क्‍लार्क की तस्‍वीर है।

रुदन एक अनवरत क्षण है। अपरिचय का रोमान अनवरत है। घर जाना, अनवरत। तस्‍वीरें और कविताएं एक-दूसरे के कानों में फुसफुसाती हैं।

ये किताब सड़कों और बेंचों को अलग-अलग तरह से देखने के बारे में है। यह उन्‍हीं लेकिन इसके बावजूद अलग-अलग सड़कों और बेंचों के बारे में है। सड़कें कभी एक जैसी नहीं होतीं, न ही बेंचे एक जैसी होती हैं। सड़कें बेंचों के क़रीब से एक राज़ बनकर गुज़रती हैं। बेंचें एक ऐसा अकॉर्डियन हैं, जिसे बहुत दिनों से बजाया नहीं गया। रुदन अनवरत है, प्रतीक्षा अनवरत।

नींद का दरवाज़ा स्‍वप्‍न के दरवाज़े पर दस्‍तक देता है।

आह! ये एक ख़ूबसूरत किताब है। ये हमें उन दरवाज़ों की ख़बर देती है, जो रात की नंगी पीठ की तरफ़ खुलते हैं और रोशनियों को बांहों में भरने हाथ फैला देते हैं।

(ज्‍यौफ़ डायर की किताब 'द ऑनगोइंग मोमेंट' आज मिली।)

Monday 9 April 2012

क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए

(मोती मस्जिद के बाहर किताबों की वो पुरानी दूकान देखते ही अपने ख़ां ये समझ गए थे कि इधर अपने काम का कुछ मिलेगा। ऐसा ही हुआ। भोपाल के जुगराफिये-कल्‍चर-माज़ी का ब्‍योरेवार बयां फ़रमाता एक वाहिद रिसाला अपने हत्‍थे चढ़ गया। ये रिसाला साल 1998 में दिल्‍ली के बाबुल इल्‍म पब्लिकेशन से डॉ रजिया हामिद की सरपरस्‍ती में शाया हुआ था। इसके पन्‍ने उलटते हुए अपनों की नज़र जनाब मुहम्‍मद अहमद सब्‍ज़वारी के एक दिलचस्‍प ब्‍योरे पे पड़ी, जिसमें वो बता रहे थे कि अठारह सौ इक्‍यासी में जब ताज महल तामीर हुआ, तो भोपाल में क्‍या जश्‍न बरपा था। उस तफ़सील का एक मुख्‍़तसर हिस्‍सा यहां अर्ज कर रहा हूं, साथ ही आज के ताज की एक तस्‍वीर। इसे पढ़ें और फिर तस्‍वीर देखें तो शीन काफ़ निज़ाम का वो मिसरा बेसाख्‍़ता याद आता है : 'क्‍यूं वो अलाव बुझ गए, वो किस्‍से क्‍या हुए।')

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"...जब शाहजहां बेगम रईसा हुईं तो वो शौक़त महल में रहती थीं। फिर उन्‍होंने महल्‍ला शाहजहानाबाद आबाद किया। यह एक मंसूबे के तहत तैयार हुआ। उसमें मुख्‍़तलिफ़ महलात मसलन ताज महल, आली मंजिल, बेनज़ीर, गुलशन-आलम, सुर्ख महल, सब्‍ज़ महल वग़ैरा बनवाए। उनके क़ुर्ब जवार में नवाब मंजिल, बारह महमल, अमीरगंज, क़ैसरगंज, मुग़लपुरा, ख्‍़वासपुरा के महल्‍ले तामीर किए। अठारह सौ इक्‍यासी ईस्‍वी में वो ताज महल में मुंतकिल हुईं और ताज की तैयारी का जश्‍न मनाया गया, जिसमें ग़रीबों को खाना खिलाया गया और लोगों को खाने के बाद मरज़ानी, मुक़ेशी हार और सोने-चांदी के वर्कों में लिपटी गिलोरियां तक़सीम की गईं। महल में एक मकान सावन-भादो के नाम से बनाया गया। इसके जश्‍न में ख़ादिमों और ख्‍़वासों को जाफ़रानी जोड़े दिए गए। ख्‍़वास को रंग से भरा हुआ एक चांदी का कटोरा, ख़ासदान और एक-एक पिचकारी दी गई। आला दर्जे के लोगों की पिचकारी सोने की थी। अंदुरून महल में एक मीना बाज़ार और उसके एक हिस्‍से में परी बाज़ार लगाया गया, जहां सिर्फ ख्‍़वातीनों की दुकानें थीं। ताज महल के बराबर पहले सरकारी गंजीख़ाना था। यहां ईदगाह की पहाड़ी के पानी को रोककर तालाब बनाया, जिसको शाहजहानी या शीरीं तालाब के नाम से मोसूम किया गया, मगर बाद में यह मोतिया तालाब के नाम से मशहूर हुआ। ताज के बिल्‍कुल बराबर उन्‍होंने एक अज़ीमोश्‍शान मस्जिद का मंसूबा बनाया। अगर यह उनके मंसूबे के मुताबिक़ तैयार हो जाती तो दुनिया की एक नादिर मस्जिद होती। दिल्‍ली की जामा से भी वाहिद। ये ही ताजुल मसाजिद थी।"